बाल मनोविज्ञान को अध्ययन करने के लिए विकाश , वृद्धि और परिपक्वता के अर्थ को समझना और इसके अंतर को जानना बहुत जरूरी है ।
विकास की अवधारणा
विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती है , इसमे गुणात्मक एवं परिणात्मक परिवर्तन दोनो ही सम्मिलित रहते है।
गुणात्मक परिवर्तन
बच्चो के उम्र बढ़ने पर संवेगात्मक (emotional) परिवर्तन, भाषा सीखने की क्षमता में परिवर्तन इत्यादि।
परिणात्मक परिवर्तन
शरीर का कद बढ़ना, वजन बढ़ना, बनावट आदि में परिवर्तन।
विकास के अभिलक्षण (characteristic)
- विकास की प्रक्रिया गर्भधारण से मृत्य तक चलती है।
- विकास बहुआयामी (Multi Dimension) और प्रासंगिक (relevant) होती है।
- विकास की गति व्यक्तिगत अंतर से प्रभावित होती है।
- विकास की प्रक्रिया सिर से पैर की तरफ बढ़ती है , जबकि मानसिक क्षेत्र में ये मूर्त से अमूर्त की ओर होती है।
- विकास सामान्य अनुक्रिया से विशिष्ट अनुक्रिया की ओर होती है।
- शारीरिक और मानसिक विकास आपस मे धनात्मक रूप से सहसंबंधी होते है।
वृद्धि (Growth)
बालको के शारीरिक संरचना के विकास जिसमे लंबाई, भार, मोटाई तथा अन्य अंगों का विकास आता है उसे “वृद्धि” कहते है। इसकी प्रक्रिया आंतरिक एवं बाह्य दोनों रूप से होती है। वृद्धि एक निश्चित आयु तक होती है। वृद्धि पर अनुवांशिकता (Hereditary) का सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ते है।
विकास की अवस्थाएं
विकास की अवस्था के संबंध में अलग अलग मनोवैज्ञानिकों की अलग अलग मत है। रॉस व फॉयड ने पांच अवस्थाएं बताई है , जबकि कॉलसेनिक दस तथा पियाजे ने चार और ब्रूनर ने तीन अवस्थाएं बताई है। भारत मे सामान्यतः विकास के अवस्था को इस प्रकार विभाजित किया गया है
i) पूर्व प्रसूतिकाल :- यह अवस्था गर्भधारण से लेकर जन्म तक होती है।
(ii) शैशवास्था :- यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्षो तक होती है।
(iii) बाल्यावस्था :- प्रारंभिक बाल्यावस्था (early childhood) 2 से 6 साल होती है।
* उत्तर बाल्यावस्था (Later Childhood) :- 6 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है।
(iv) किशोरावस्था :- 12 वर्ष से 18 वर्ष तक
(v) युवावस्था :- 18 वर्ष से 30 वर्ष
(vi) प्रौढावस्था :- 30 से 60 वर्ष तक
(vii) वृद्धावस्था :- 60 वर्ष से मृत्य तक।
शिक्षा मनोविज्ञान व बाल मनोविज्ञान में सभी अवस्थाओं का अध्ययन महत्वपूर्ण नही है। इसके प्रमुख अवस्थाएं है :- शैशवावस्था , बाल्यावस्था और किशोरावस्था है।।
- शैशवावस्था :- जन्म से 2 वर्ष की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है , जिसमे शिशु का शारीरिक और मानसिक विकास तेज़ी से होता है। इस अवस्था मे बालक पूर्ण रूप से माता-पिता पर आश्रित होते है। इस समय बच्चा पुनरावृति, प्रयास व त्रुटिपूर्ण व्यवहार, वस्तु की प्रधानता, छोटे-छोटे शब्दो का प्रयोग आदि करते है।
- बाल्यावस्था (Childhood):- बाल्यावस्था के दो चरण है – प्रारंभिक बाल्यावस्था और उत्तर बाल्यावस्था ।
(i) प्रारंभिक बाल्यावस्था :- यह अवस्था 2 से 6 वर्ष तक की मानी जाती है। इस समय बच्चे बच्चे ज्यादा जिद्दी, विरोधात्मक, आज्ञा न मानने वाले होते है। बालको में जिज्ञासा ज्यादा होती है और वो खिलौनो से खेलना पसंद करते है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह काल भाषा सीखने की सबसे उत्तम अवस्था होती है।
(ii) उत्तर बाल्यावस्था :- यह अवस्था 6 से 12 वर्षो तक माना जाता है। इस अवस्था मे बच्चे स्कूल जाना प्रारम्भ कर देते है। बच्चो में नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक, तर्कशील का वयापक विस्तार का विकास होता है। बालक सरारत करते है, समूह में रहना पसंद करते है। इस समय घूमने की प्रवृति का विकास होता है, बच्चो को अनुशासन और नियमो के महत्व समझ आने लगती है। इस समय बालक स्वयं से संबंधित बातें अधिक करते है।
(iv) किशोरावस्था (youth / adolescence) :- 12 से 18 वर्ष की आयु को किशोरावस्था कहा जाता है, जिसमे बच्चो के महत्वपूर्ण शारीरिक, सामाजिक, संवेगात्मक, संज्ञानात्मक विकास होते है। इस अवस्था मे मित्र बनाने की प्रवृति तीव्र होती है और सामाजिक संबंधों में वृद्धि होती है। साथ ही साथ बच्चो में ऊंची आकांक्षाएं, कल्पनाएं, नाइ आदते, व्यवहार में भटकाव, नशा या अपराध की तरफ झुकाव आदि देखने को मिलता है। इसलिए इन्हें इस अवस्था मे शिक्षकों, मित्रो एवं अभिभावकों के मार्गदर्शन एवं सलाह जी जरूरत पड़ती है।
4. विकास के आयाम (Dimension of Development) :- मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन के दृष्टिकोण से विकास को निम्नलिखित भागो में बंटा गया है :-
(i) शारीरिक विकास :- शिशु का शारीरिक विकास गर्भावस्था से ही प्रारंभ हो जाता है। शरीर के बाहरी परिवर्तन तो स्पष्ट रूप से दिखते है लेकिन साथ ही साथ इनका विकास शरीर के अंदर भी होता रहता है। आकर एवं भार, मांसपेशियाँ एवं हड्डियां, मस्तिष्क और पाचन तंत्र समय के साथ साथ विकसित होता रहता है। बालको के परिवेश एवं उनके देखभाल के भी उनके शारीरिक विकास पर असर होता है। अगर बच्चो को पर्याप्त आहार न मिले तो उनके शारीरिक विकास के सामान्य गति में रुकावट आ सकती है।
बालको के वृद्धि एवं विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी इसलिए भी रखना अनिवार्य है ताकि बच्चो के रुचि , इच्छाएं, दृष्टिकोण एवं एक तरह से उनका पूर्ण व्यवहार शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर ही निर्भर करता है। बच्चो के शारीरिक वृद्धि एवं विकास के सामान्य ढांचे से परिचित होकर अध्यापक यह जान सकते है कि एक विशेष आयु स्तर पर बच्चो से क्या उम्मीद की जा सकती है।।
(ii) मानसिक या संज्ञात्मक विकास (Mental or Cognitive Development) :- मानसिक विकास का मुख्य साधन ज्ञानेन्द्रियो की क्षमता एवं गुणवत्ता का विकास होता है। इसके अंतर्गत भाषा , स्मृति, तर्क, चिंतन, कल्पना, निर्णय जैसी योग्यताओं को शामिल किया जाता है। जन्म के समय बालक में इस प्रकार की योग्यताओ की कमी रहती है। धीरे धीरे आयु बढ़ने के साथ साथ मानसिक विकास की गति बढ़ती रहती है।
संज्ञानात्मक विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए ताकि वो इसके अभाव में बालको से संबंधित समस्याओं का समाधान कर सके। यदि कोई बालक मानसिक रूप से कमजोर है, तो इसके कारण का पता कर उनके समस्याओं का समाधान कर सके। विभिन्न अवस्थाओं और आयु-स्तर के बच्चो में मानसिक वृद्धि और विकास को ध्यान में रख उपयुक्त पाठ्यक्रम तैयार कर सके।
(iii) भाषायी विकास :- भाषा के विकास को भावनात्मक विकास माना जाता है। भाषा के माध्यम से बालक अपने मन के भावों, विचारों को एक-दूसरों के सामने रखता है और दूसरों के भावनाओ एवं विचारों को समझता है। भाषाई ज्ञान के अंतर्गत बोलकर, संकेतो के माध्यम एवं लिख कर अपने विचारों को प्रकट करता है।
बालको में 6 से 1 वर्ष के बीच कुछ शब्दों को समझने और बोलने लगता है। 3 वर्ष अवस्था मे वो वो कुछ छोटे वाक्यो को बोलने लगता है तथा 15 से 16 वर्षो के बीच बहुत से शब्दों की समझ को विकसित कर लेता है। भाषायी विकास का क्रम एक क्रमिक विकास होता है, इसके माध्यम से कौशल में वृद्धि होती है।
(iv) संवेगात्मक विकास (Emotional Development) :- संवेग, इसे भाव भी कहा जाता है। जिसका अर्थ होता है ऐसी अवस्था जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है। जन्म से ही बच्चो में संवेगात्मक व्यवहार की शुरुवात हो जाती है। जन्म के समय शिशु की संवेगात्मक प्रक्रिया सिर्फ उत्तेजना मात्र होती है और बाल्यावस्था में यह सिर्फ उत्तेजना न हो कर उसके अभिव्यक्ति में सामाजिकता को प्रकट करने लगती है। बाल्यावस्था में बालको में ईर्ष्या एवं द्वेष की भावना उत्पन्न होने लगती है जिसके कारण बालक चिढ़ना, उपेक्षा करना, निंदा करना, आरोप लगाना आदि करने लगता है। किशोरावस्था में संवेगो की प्रबलता बहुत ज्यादा होती है। किशोरावस्था में अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग प्रकार का व्यवहार करता है, कभी वो गुस्सा करने लगता है तो कभी खुश हो जाता है।
बालक के संतुलित विकास में उसके संवेगात्मक विकास की अहम भूमिका होती है। बालको के संवेगात्मक विकास पर परिवार का बड़ा असर पड़ता है। विद्यालय के परिवेश और क्रिया-कलापो को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक बच्चो के संवेगात्मक विकास में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते है।
(v) क्रियात्मक विकास (Operative/Motor Development) :- व्यक्ति के कार्य करने की क्षमताओ, योग्यताओं और शक्तियों को क्रियात्मक विकास के अर्थ के रूप में समझ सकते है। क्रियात्मक शक्तियों, क्षमताओ और योग्यताओं का अर्थ होता है ऐसी शारीरिक गतिविधियां या क्रियाएं जिसे पूरा करने के लिए मांसपेशियों एवं तंत्रिकाओं की गतिविधियों के संयोजन की आवश्यकता होती है। जैसे चलने, उठने, बैठने के लिए इत्यादि।
जन्म से शिशु ऐसे कार्य करने में सक्षम नही होता है। शारीरिक वृद्धि एवं विकास के साथ उम्र बढ़ने के साथ उसमे इस प्रकार की योग्यताओं का विकास होने लगता है। क्रियात्मक विकास के माध्यम से बच्चो में आत्मविश्वास अर्जित करने में भी सहायता मिलती है। इसके अभाव में बालको में विभिन्न प्रकार के कौशलों के विकास में बाधा पहुँचती है। इसी ज्ञान के आधार पर ही बालको में विभिन्न कौशलों के विकास करवाने में सहायता प्राप्त हो सकती है। जिन बालको में क्रियात्मक विकास सामान्य से कम होती है , उनके समायोजन एवं विकास के लिए विशेष कार्य करने की जरूरत होती है।
(vi) सामाजिक विकास (Social Development) :- सामाजिक विकास का शाब्दिक अर्थ ” समाज के अंतर्गत रहकर विभिन्न पहलुओं को सीखना” है। जन्म के समय बच्चा सामाजिक प्राणी नही होता है, जैसे जैसे इनमें शारीरिक और मानसिक विकास होता, वैसे वैसे सामाजिक विकास भी होता है। बालको के विकास की पाठशाला सर्प्रथम परिवार को मना जाता है उसके बाद समाज को। सामाजिक विकास के माध्यम से बालको का जुड़ाव व्यापक हो जाता है। इस अवस्था मे बालको में सांस्कृतिक, धार्मिक और सामुदायिक विकास इत्यादि की भावनाएं उत्पन्न होती है। साथ ही साथ मन मे आत्मसम्मान, स्वाभिमान और विचारधारा का जन्म होता है। इस अवस्था में किशोर आत्मनिर्भर बनना चाहते है और अपने व्यवसाय के चयन के लिए चिंतित रहते है। इस कार्य मे उनके सफलता और असफलता उनके सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। किशोरावस्था के समय बच्चो में अपने माता-पिता, परिजन, परंपराओं, रीति-रिवाजों के प्रति विद्रोह की भावना रहती है। यदि उन्हें सही ढंग से समझाया जाए तो यही विद्रोह की भावना प्रेम और स्नेह की भावना में परिवर्तित हो जाती है। एक शिक्षित समाज मे ही व्यक्ति का उत्तम विकास संभव हो सकता है। बालक समाज का माध्यम से ही अपने आदर्श व्यक्तियों का चयन करता है और उनसे प्रेरणा लेकर कुछ बनने की कोशिश करता है।
5. वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले कारक
वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले अनेक कारक उत्तरदायी होते है, जो निम्न प्रकार से है :-
(i) पोषण :- पोषण वृद्धि और विकास का महत्वपूर्ण घटक होता है। बच्चो को विकास के लिए उचित मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट, लवण, खनिज, वसा इत्यादि की जरूरत होती है। इनकी कमी से बच्चो के विकास और वृद्धि में समस्या आने लगती है और उनका उचित विकास और वृद्धि में बाधा उत्पन्न होने लगती है।
(ii) वृद्धि :- यह विकास के अन्य कारकों में सबसे महत्वपूर्ण होती है। बौद्धिक विकास जितना उच्च होगा, हमारे अंदर समझदारी नैतिकता, भावनात्मकता, तर्कशीलता इत्यादि का विकास उतना ही उत्तम होता है।
(iii) लिंग :- सामान्यतः लड़के और लड़कियों के विकास में अंतर देखा जाता सकता है। कुछ अवस्था मे लड़कियों में विकास की गति तेज होता है तो कभी लड़को में।
(iv) वंशानुगत (Heredity) :- वंशानुगत स्थिति शारीरिक एवं मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। माता-पिता के गुण एवं अवगुण का प्रभाव बच्चो पर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
(v) शारीरिक क्रिया :- जीवन को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम बहुत जरूरी है। यह व्यक्ति को सक्रिय बनाये रखता है तथा ये रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाता है। यह मनुष्यो की आयु को भी बढ़ाता है।
(vi) अंतः स्रावी ग्रंथियाँ (Endocrine Glands) :– इनसे निकलने वाले हार्मोन्स बालक एवं बालिकाओं के शारीरिक विकास को प्रभावित करता है।