पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त
Piaget’s Theory of Cognitive Development
जीन पियाजे ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या अपने सिद्धान्त को चार मुख्य अवस्थाओं में बाँटकर की है। इन्ही अवस्थाओं से गुजरकर बालक का संज्ञानात्मक विकास होता है। ये अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं|
पियाजे संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ:-
1. ज्ञानात्मक क्रियात्मक या संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory-motor stage)
यह अवस्था जन्म से दो साल तक होती है। इस अवस्था में शिशु अपनी आँखों, कानों, हाथों और अन्य संवेदी प्रेरक उपकरणों के माध्यम से सोचता है। इस अवस्था में शिशुओं का संज्ञानात्मक विकास 6 उप-अवस्थाओं से होकर गुजरता है।
(i) प्रवर्तक क्रियाओं की अवस्था :-
पहली उप-अवस्था जन्म से 30 दिन तक होती है। इसे प्रतिवर्त्त क्रिया अवस्था भी कहते हैं क्योंकि इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त्त क्रियाएं करता है; जैसे किसी चीज को चूसना आदि।
(ii) मुख्य वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था :-
दूसरी उप-अवस्था 1 माह से लेकर 4 माह तक की अवधि की होती है। इस अवस्था को प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रिया की अवस्था कहते हैं। प्रमुख इसलिए कहते है कि उनके शरीर की प्रमुख प्रतिवर्त्त क्रियाएँ है और वृत्तीय इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उन्हें दोहराया जाता है।
(iii) गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था :-
तीसरी उप- अवस्था 4 माह से लेकर 8 माह तक की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशु वस्तुओं को छूने तथा उन्हें इधर-उधर उलट-पलट करता है।
(iv) गौण स्कीमैटा से समन्वय की अवस्था :-
चौथी उप-अवस्था 8 माह से 12 माह तक इस अवस्था में शिशु वयस्कों का अनुकरण करना प्रारंभ कर देते है; जैसे नाना कैसे हँसते है, बड़े पापा कैसे करते हैं, आदि।
(v) तीसरी वृत्तीय प्रतिक्रियाओ की अवस्था :-
पाँचवीं उप-अवस्था 12 माह से 18 माह तक की होती है। इसमें प्रयत्न व त्रुटि. के आधार पर सीखना शुरू कर देता है जानने की प्रबलता बढ़ जाती है।
(vi) मानसिक संयोग द्वारा नवीन साधनों की खोज की अवस्था :- छठी उप-अवस्था 18 माह से 24 माह की अवधि होती है। इस अवस्था में बालक चिंतन करना प्रारंभ कर देता है। (यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि वह बिना भाषा के ज्ञान के चिंतन करता है) बालक में वस्तु स्थायित्व का गुण विकसित हो जाता है अर्थात् वस्तु को उसके सामने से हटा देने पर भी वो यह जानता है कि वस्तु का वजूद है जबकि वह प्रारंभ में यह समझता था कि वस्तु यदि सामने से हट गयी तो वजूद उसका खत्म हो गया। यही कारण है कि इस अवस्था में बालक के सामने से खिलौने हटाने पर वह उसके पाने की जिद करता रहता है।
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2. पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था ( Preoperational Stage )
संज्ञानात्मक विकास की इस अवस्था की अवधि 2 से 7 वर्ष के मध्य की होती है। बालक के विकास की इस अवधि को प्राय: प्रारम्भिक बाल्यावस्था के नाम से भी जाना जाता है। इस अवस्था में बालकों की मानसिक प्रतीक निर्माण प्रक्रियाओं में असाधारण परिवर्तन होता है। पियाजे ने इस अवस्था को मुख्य दो भागों में बाँटा है, जो निम्न हैं
(i) पूर्व वैचारिक अवस्था ( Pre Conceptual Period ) :-
इस अवस्था की अवधि 2 से 4 वर्ष के मध्य की होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं, शब्द चिन्हों आदि के विषय में अपना मानसिक चिन्तन विकसित करने लगता है। इस अवस्था में बालक में आत्मकेंद्रित का भाव आ जाता है। स्वयं को महत्त्वपूर्ण समझता है उसे यह लगता है कि सूर्य, चंद्रमा आदि उसके पीछे चलते है। बालक में संकेत, भाषा, शब्द तेजी से विकसित होते हैं। इस अवस्था में बालक द्वारा किए जाने वाले कार्य (लाक्षणिक) मुख्यत: अनुकरण तथा खेल के माध्यम से किए जाते हैं।
(ii) अन्तदर्शी अवस्था ( Intuitive Period ) :-
इस अवस्था की अवधि 4 से 7 वर्ष के मध्य की होती है। इस अवस्था में बालक का चिन्तन एवं तर्कणा पहले से अधिक परिपक्व हो जाती हैं। परिणामस्वरूप वह साधारण मानसिक क्रियाओं जैसे जोड़, घटाव गुणा व भाग आदि में सम्मिलित तो हो जाता है परन्तु इन मानसिक क्रियाओं के पीछे छिपे नियमों को समझ नहीं पाता है अर्थात् बालक यह तो बता देता है कि 3 × 3 = 9, लेकिन बालक यह बताने में असमर्थ होता है कि 9 + 3 = 3 होगा।
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3. मूर्त-संक्रियात्मक अवस्था ( Concrete Operational
Stage ) :-
इस अवस्था की अवधि 7 से 11 वर्ष के मध्य की होती है। संज्ञानात्मक विकास की इस अवस्था में बालक का चिन्तन एवं तर्कणा पहली अवस्था (पूर्व संक्रियात्मक अवस्था) की तुलना में अधिक क्रमबद्ध तथा तर्कसंगत हो जाता है, साथ ही उसके चिन्तन में पलटावी गुण भी आ जाता है। इस अवस्था में बालक में संरक्षण, सम्बन्ध तथा वर्गीकरण संप्रत्यय का गुण भी विकसित हो जाता है। परिणामस्वरूप बालक वस्तुओं के गुणों के आधार पर उन्हें विभिन्न वर्गों या उपवर्गों में विभाजित करने लगता है। अतः उपरोक्त आधार पर हम कह सकते हैं कि इस अवस्था में बालक की विचार प्रक्रिया छोटे बच्चों के बजाय बड़ों से अधिक मिलने लगती है।
4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था ( Formal
Operational Stage ) :-
इस अवस्था की अवधि 11 से 15 वर्ष के मध्य की होती है। इस अवस्था में बालक में अमूर्त तथा वैज्ञानिक ढंग से सोचने की क्षमता विकसित हो जाती है अर्थात् उनका चिन्तन अधिक लचीला तथा प्रभावी हो जाता है, साथ ही चिन्तन में क्रमबद्धता स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है। जहाँ मूर्त-संक्रियात्मक अवस्था में बालक वास्तविक संसार के साथ संक्रियाएँ करता है, वहीं औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था में वह संक्रियाओं के साथ ही संक्रिया कर आन्तरिक चिन्तन के माध्यम से व्यापक रूप से तार्किक नियम गढ़ने में समर्थ हो जाता है। इस अवस्था पर शिक्षा के स्तर का भी प्रभाव पड़ता है। जिन बालकों में शिक्षा स्तर की काफी नीचा होता है उनमें औपचारिक संक्रियात्मक चिंतन भी काफी कम होता है जिनमें ज्यादा होगा उनमें चिंतन भी ज्यादा होगा। अमूर्त चिंतन का गुण विकसित हो जाता है। इस अवस्था में बालकों को सही दिशा निर्देशन की अवस्था होती है क्योंकि यह शिफ्टिंग पीरियड होता है।
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