इतिहास का महत्व :-
इतिहास हमारे अतीत अथवा बीते हुए समय का क्रमानुसार अध्ययन है। जो लोग अतीत का अध्ययन करते हैं उन्हें इतिहासकार कहते हैं। इतिहासकार अतीत की जानकारी कई तरह से प्राप्त करते हैं जैस-भौतिक अवशेष, सिक्के, अभिलेख, पांडुलिपियाँ, साहित्यिक स्रोत, विदेशी विवरण इत्यादि । पांडुलिपियों, अभिलेखों तथा पुरातत्त्व से ज्ञात जानकारियों के लिए इतिहासकार सामान्यतः स्रोत शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रो. घाटे -” इतिहास हमारे सम्पूर्ण भूतकाल का वैज्ञानिक अध्ययन तथा लेखा-जोखा है। ”
भारतीय इतिहास के स्रोत :-
- पुरातत्त्व संबंधी साक्ष्य
- अभिलेख
- प्रशस्ति
- सिक्के
- साहित्यिक स्रोत पाण्डुलिपियाँ
- धर्मग्रन्थ
- बौद्ध धर्म ग्रन्थ
- जैन धर्म ग्रन्थ
- सम-सामयिक ग्रन्थ एवं लौकिक साहित्य
- हड़प्पा संस्कृति अभिलेख अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। ये संभवतः किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं जिसमें विचारों और वस्तुओं को चित्रों के रूप व्यक्त किया जाता था।
- अशोक के अधिकतर अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है। यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। केवल उत्तरी-पश्चिमी भारत के कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं जो दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी।
- लघमान एवं शेरकुना से प्राप्त अशोक के अभिलेख यूनानी तथा आरमेइक लिपियों में हैं। इस प्रकार अशोक के अभिलेख मुख्यतः ब्राह्मी, खरोष्ठी, यूनानी तथा आरमेइक लिपियों में मिले हैं।
- अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 में सफलता मिली। जेम्स प्रिन्सेप ने अशोक के अभिलेखों को पढ़ा (लेकिन खोज सबसे पहले पाद्रेपी फैन्थेलर ने की थी)।
- अफगानिस्तान के कंधार से मिला 2250 वर्ष पुराना अभिलेख यूनानी तथा आरमेइक नामक दो लिपियों में है।
- मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त वाराह प्रतिमा पर हूणराज तोरमाण के लेखों का विवरण है।
- इलाहाबाद के अशोक स्तम्भ पर समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग स्तम्भ लेख एक प्रशस्ति अभिलेख है, जिसमें समुद्रगुप्त की विजयों और नीतियों का पूरा वर्णन मिलता है।
- ऐहोल अभिलेख भी एक प्रशस्ति अभिलेख है, यह चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय के दरबारी कवि रविकीर्ति ने लिखा है। जिसमें पुलकेशिन द्वितीय तथा हर्षवर्धन के बीच हुए युद्ध का वर्णन मिलता है।
- भारत के प्राचीनतम सिक्के आहत सिक्के हैं जो ई.पू. पाँचवीं सदी के हैं। ठप्पा मारकर बनाये जाने के कारण भारतीय भाषाओं में इन्हें आहत मुद्रा कहते हैं।
- इन पर पेड़, मछली, साँड, हाथी, अर्धचन्द्र आदि आकृतियाँ बनी होती थी।
- आरम्भिक सिक्के अधिकतर चाँदी के होते थे, जबकि ताँबे के सिक्के बहुत कम थे। सर्वाधिक सिक्के मौर्योत्तर कालों में मिले हैं जो विशेषत: सीसे, चाँदी, ताँबा एवं सोने के हैं।
- भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्के कुषाणों ने जारी किये लेकिन सोने के सर्वाधिक सिक्के गुप्त शासकों ने जारी किये तथा सातवाहनों ने सीसे के सर्वाधिक सिक्के जारी किये। सातवाहनों ने पोटीन के भी सिक्के जारी किये।
- सिक्कों पर राजवंशों और देवताओं के चित्र, धार्मिक-प्रतीक और लेख भी अंकित रहते हैं और ये सभी तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश डालते हैं।
- साहित्यिक स्त्रीत दो प्रकार के हैं-1. धार्मिक साहित्य 2. लौकिक-साहित्य।
- धार्मिक साहित्य में ब्राह्मणग्रन्थ-वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति ग्रन्थ व ब्राह्मणेत्तर ग्रन्थ आते हैं।
- लौकिक साहित्य में ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनियाँ, कल्पना प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन आता है।
- प्राचीन समय में पुस्तकों को हाथ से लिखा जाता था जिसे पांडुलिपि कहा जाता है, जो मंदिरों तथा बिहारों से प्राप्त होती हैं।
- हस्तलिखित होने के कारण इन्हें पांडुलिपि या मैन्यूस्क्रिप्ट कहते हैं। सामान्यतः पांडुलिपियाँ ताड़पत्तों अथवा हिमालय क्षेत्र में उगने वाले भुर्ज नामक पेड़ की छाल से बने विशेष तरीके से तैयार भोजपत्र पर लिखी जाती हैं।
- पांडुलिपियों में धार्मिक मान्यताओं, व्यवहारों, राजाओं के जीवन, औषधियों व विज्ञान आदि विषयों की चर्चा मिलती है, इनके अतिरिक्त महाकाव्य, कविताएँ व नाटक भी हैं।
- भाषा-कई पांडुलिपियाँ संस्कृत में लिखी हुई मिलती हैं, जबकि अन्य प्राकृत अथवा तमिल में हैं।
- वैदिक ग्रन्थः सबसे प्राचीन धर्मग्रन्थ हैं, जिनकी कुल संख्या चार है- (i) ऋग्वेद, (ii) सामवेद, (iii) यजुर्वेद, (iv) अथर्ववेद
- ऋग्वेद :- ऋग्वेद को 1500-1000 ई.पू. के लगभग माना जाता है। ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ हैं इसमें 1028 सूक्त एवं कुल दस मंडल हैं।
- यजुर्वेद :- यजु का अर्थ है ‘यज्ञ’। इसमें यज्ञों के नियम एवं विधि-विधानों का संकलन मिलता है। यजुर्वेद गद्य एवं पद्य दोनों में है।
- सामवेद :- ‘साम’ का शाब्दिक अर्थ है गान। इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जा सकता है। सामवेद में मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं।
- अथर्ववेद :- अथर्ववेद की रचना सबसे अंत में हुई इसमें ब्रह्म ज्ञान, धर्म, समाजनिष्ठा, औषधि प्रयोग, रोग निवारण मंत्र, जादू-टोना आदि विषयों का वर्णन है। वेदों के द्वारा प्राचीन आर्यों के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। इस प्रकार वेद वैदिक युग की सांस्कृतिक दशा के ज्ञान का एकमात्र स्रोत हैं।
- ब्राह्मण ग्रन्थ :- वेदों में दिए गए यज्ञों एवं कर्मकांडों के विधान को अच्छी तरह समझने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की गई।
- आरण्यक ग्रन्थ :- आरण्यक ग्रन्थों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों का वर्णन होता है। इसमें कोरे यज्ञवाद के स्थान पर चिन्तनशील ज्ञान के पक्ष को अधिक महत्त्व दिया गया है। जंगल में पढ़े जाने के कारण इन्हें आरण्यक कहा जाता है।
- उपनिषद् :- उप का अर्थ है ‘समीप’ और निषद का अर्थ है बैठना। अर्थात जिस रहस्य विद्या का ज्ञान गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया जाता है उसे ‘उपनिषद्’ कहते हैं।
- उपनिषद् वैदिक साहित्य के अंतिम भाग हैं इसलिए इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। इनकी कुल संख्या 108 मानी गई है। भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है।
- वेदांगः वेदों का अर्थ समझने के लिए वेदांग काफी सहायक होते हैं। इनकी कुल संख्या छः है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष |
- प्रारम्भिक बौद्ध धर्म ग्रन्थ पाली भाषा में लिखे गए थे। बुद्ध के पूर्व जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन जातक कथाओं में है।
- बौद्ध ग्रन्थ अंगुतार निकाय में छठी शताब्दी ई. पू. के सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
- बौद्ध ग्रन्थों में त्रिपिटक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, ये हैं- 1. सुत्तपिटक, 2. विनयपिटक, 3. अभिधम्मपिटक
- जैन धर्म ग्रन्थों की रचना मुख्यतः प्राकृत भाषा में हुई थी। जैन ग्रन्थों का संकलन गुजरात (बल्लभी) में ईसा छठी शताब्दी में हुआ था।
- महावीर स्वामी द्वारा दिए गए मौलिक सिद्धान्त चौदह प्राचीन ग्रन्थों में हैं जिन्हें पूर्व कहते हैं। बाद में उन्हें बारह अंगों एवं बारह उपअंगों में विभाजित कर दिया गया।
- जैन ग्रन्थों में सबसे महत्त्वपूर्ण हेमचन्द्र कृत परिशिष्टपर्व है, जिससे हमें चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की प्रारम्भिक तथा उत्तर कालीन घटनाओं की सूचना मिलती है।
- जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र में भी सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
सम-सामयिक ग्रन्थ एवं लौकिक साहित्य
- सम-सामयिक ग्रन्थ एवं लौकिक साहित्य में ऐतिहासिक ग्रन्थों, जीवनियाँ, कल्पना प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है। इस प्रकार के ग्रन्थों से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को जानने में बहुत मदद मिलती है जैसे- अर्थशास्त्र, मुद्राराक्षस, अष्टाध्यायी, महाभाष्य, गार्गी संहिता, हर्षचरित, मालविकाग्निमित्रम्, राजतरंगिणी इत्यादि ।
- कुछ प्राचीनतम तमिल ग्रन्थ भी हैं जो संगम साहित्य में संकलित हैं। राजाओं द्वारा संरक्षित विद्या केन्द्रों में एकत्र होकर कवियों और भाटों ने इस साहित्य का सृजन किया। ऐसी साहित्य सभा को संगम कहते थे। (जिस सभा द्वारा इस साहित्य का सृजन हुआ) इसीलिए समूचा साहित्य संगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया। जैसे-शिल्प्पादिकारम्, मणिमेखलै और कुरल प्रमुख संगम साहित्य हैं।
- गल्प साहित्य एवं लौकिक साहित्य के तहत् वाचिक परम्पराओं का प्रयोग करके आदिवासी (जनजातीय) लोग अपनी संस्कृति व परम्पराओं को संजो कर रखते हैं।
इतिहास का काल विभाजन
प्रायः दो प्रकार से इतिहास का काल विभाजन किया जाता है:
- स्रोत के आधार पर
- काल / समय के आधार पर
स्त्रोत के आधार पर इतिहास का विभाजन :-
- प्रागैतिहासिक कालः इस काल के लिए कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है-पाषाण काल ।
- आद्य ऐतिहासिक कालः लिखित साक्ष्य उपलब्ध है लेकिन पढ़ा नहीं गया है – सिन्धु घाटी सभ्यता।
- ऐतिहासिक काल: लिखित साक्ष्य भी उपलब्ध है और पढ़ा भी गया है-वैदिक काल, मौर्य काल आदि।
तिथियाँ लिखने की पद्धति :-
अँग्रेजी में B.C. (हिन्दी में ई. पू.) का तात्पर्य Before Christ (ईसा पूर्व) होता है एवं A.D. (हिन्दी में ई.) का तात्पर्य Anno Domini जिसका तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के वर्ष से है। आजकल A.D. की जगह C.E. का प्रयोग होता है। C.E. का अर्थ ‘Common Era’ तथा B.C.E. का अर्थ ‘Before Common Era’ होता है। विश्व के अधिकांश देशों में अब ‘Common Era’ का प्रयोग सामान्य हो गया है। हालांकि आजकल अंग्रेजी में B. P. शब्द का प्रयोग भी किया जाने लगा है जिसका अर्थ Before Present है।
काल / समय के आधार पर इतिहास का विभाजन :-
- प्राचीन कालः पाषाण काल से हर्षवर्धन तक
- मध्यकालः राजपूत काल से मुगल काल तक
- आधुनिक काल: औरंगजेब की मृत्यु से भारत की स्वतंत्रता तक (1707 ई.-1947 ई.)
19वीं शताब्दी/सदी के मध्य में अँग्रेज इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को तीन युगों में बाँटा था: ‘हिन्दू’, ‘मुस्लिम’ और ‘ब्रिटिश’। यह विभाजन इस विचार पर आधारित था कि शासकों का धर्म ही एक मात्र महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक परिवर्तन होता है और अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति में कोई भी महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं आता।
इस काल के विभाजन को आज बहुत कम इतिहासकार ही स्वीकार करते हैं
- अधिकतर इतिहासकार आर्थिक तथा सामाजिक कारकों के आधार पर ही अतीत के विभिन्न कालखंडों की विशेषताएँ तय करते हैं।